शनिवार, 25 सितंबर 2021

राष्ट्रीय चेतना के प्रहरी-राष्ट्रकविः रामधारी सिंह दिनकर

 


राष्ट्रीय चेतना के प्रहरी-
राष्ट्रकविः रामधारी सिंह दिनकर

 
   *लाल बिहारी लाल


 
आधुनिक हिंदी काव्य में राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना का शंखनाद करने वाले तथा युग चारण नाम से विख्यात । दिनकर जी का जन्म 23 सितम्बर 1908 0 को बिहार के तत्कालीन मुंगेर(अब बेगुसराय) जिला के सेमरिया घाट नामक गॉव में हुआ था। इनकी शिक्षा मोकामा घाट के स्कूल तथा पटना कॉलेज में हुई जहॉ से उन्होने इतिहास विषय लेकर बी ए (आर्नस) किया था ।
          एक विद्यालय के प्रधानाचार्य, बिहार सरकार के अधीन सब रजिस्टार,जन संपर्क विभाग के उप निदेशक, लंगट सिंह कॉलेज, मुज्जफरपुर के हिन्दी विभागाध्यक्ष, 1952 से 1963 तक राज्य सभा के सदस्य,1963 में भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति
,1965 में भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार (मृत्युपर्यन्त) आदी जैसे विभिन्न पदो को
सुशोभित किया एवं अपने प्रशासनिक योग्यता का परिचय दिया।
         साहित्य सेवाओं के लिए इन्हें डी लिट् की मानद उपाधि, विभिन्न संस्थाओं से इनकी पुस्तकों पर पुरस्कार। इन्हें 1959 में साहित्य आकादमी एवं पद्मविभूषण सम्मान से सम्मानित किया गया । 1972 में काव्य संकलन उर्वशी के लिए इन्हें
ज्ञानपीठ पुरस्कार द्वारा सम्मानित किया गया था।
दिनकर के काव्य में परम्मपरा एवं आधुनिकता का अद्वितीय मेल है
     राष्ट्रीयता दिनकर की काव्य चेतना के विकास की एक अपरिहार्य कडी है। उनका राष्ट्रीय कृतित्व इसलिए प्राणवाण है कि वह भारतवर्ष की सामाजिक,संस्कृतिक और उनकी आशा अकाकांक्षाओं को काव्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करने में सक्षम है। वे वर्त्तमान के वैताली ही नहीं बल्कि मृतक विश्व के चारण की भूमिका भी उन्हें निभानी पडी थी ।
    
परम्मपरा एवं आधुनिकता की सीमाओं से निकलकर उनका ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टिकोण ही दिनकर की राष्ट्रीयता के फलक को व्यापक बनाती है।
      दिनकर के काव्य में जहॉ अपने युग की पीडा का मार्मिक अंकन हुआ है,वहॉ वे शाश्वत और सार्वभौम मूल्यों की सौन्दर्यमयी अभिव्यक्ति के कारण अपने युग की सीमाओं का अतिक्रमण किया है। अर्थात वे कालजीवी एवं कालजयी एक साथ रहे हैं।
      राष्ट्रीय आन्दोलन का जितना सुन्दर निरुपण दिनकर के काव्य में उपलब्ध होता है,उतना अन्यत्र नहीं? उन्होने दक्षिणपंथी और उग्रपंथी दोनों धाराओं को आत्मसात करते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन का इतिहास ही काव्यवद्ध कर दिया है।
सन 1929 में 25 अक्टूबर को लॉर्ड इरविन ने जब गोलमेज सम्मेलन की घोषणा की तो युवको ने विरोध किया । तत्कालीन भारत मंत्री वेजवुड के द्वारा उक्त ब्यान को 1917
वाले वक्तव्य का पुर्नरावृति माना । 1929 में कांग्रेस का भी मोह भंग हो गया । तब दिनकर जी ने प्रेरित होकर कहा था-
      टूकडे दिखा-दिखा करते क्यों मृगपति का अपमान ।

          ओ मद सत्ता के  मतवालों  बनों ना  यूं  नादान ।।


स्वतंत्रता मिलने के बाद भी कवि युग धर्म से जुडा रहा। उसने देखा कि स्वतंत्रता उस व्यक्ति के लिए नहीं आई है जो शोषित है बल्कि उपभोग तो वे कर रहें हैं जो सत्ता के
केन्द्र में हैं। आमजन पहले जैसा ही पीडित है, तो उन्होंने नेताओं पर कठोर व्यंग्य करते हुए राजनीतिक ढाचे को ही आडे हाथों लिया-
      टोपी कहती है मैं थैली बन सकती हू ।

      कुरता कहता है मुझे बोरिया ही कर लो।।

      ईमान बचाकर कहता है  ऑखे सबकी,
      बिकने को हू तैयार खुशी से जो दे दो ।।
दिनकर व्यष्टि और समष्टि के सांस्कृतिक सेतु के रुप में भी जाने जाते है, जिससे इन्हें राष्ट्रकवि की छवि प्राप्त हुई। इनके काव्यात्मक प्रकृति में इतिहास, संस्कृति एवं राष्ट्रीयता का वृहद पूट देखा जा सकता है ।

       दिनकर जी ने राष्ट्रीय काव्य परंपरा के अनुरुप राष्ट्र और राष्ट्रवासियों को जागृत और उदबद बनाने का अपना दायित्व सफलता पूर्वक सम्पन्न किया है। उन्होने अपने  पूर्ववर्ती राष्ट्रीय कवियों की राष्ट्रीय चेतना भारतेन्दू से लेकर अपने सामयिक कवियों तक आत्मसात  की और उसे अपने व्यक्तित्व में रंग कर प्रस्तुत किया। किन्तु परम्परा के सार्थक निर्वाह के साथ-साथ उन्होने अपने आवाह्न को समसामयिक विचारधारा से जोडकर उसे सृजनात्मक बनाने का प्रयत्न भी किया है। उनकी एक विशेषता थी कि वे साम्राज्यवाद के साथ-साथ सामन्तवाद के भी विरोधी थे। पूंजीवादी शोषण के प्रति उनका दृष्टिकोण अन्त तक विद्रोही रहा। यही कारण है कि उनका आवाह्न आवेग धर्मी होते हुए भी शोषण के प्रति जनता को विद्रोह करने की प्रेरणा देता है ।’’ अतः वह आधुनिकता के धारातल का  स्पर्श भी करता है ।

इनकी मुख्य कृतियॉः

*काव्यात्मक-रेणुका,द्वन्द गीत, हुंकार(प्रसिद्धी मिली),रसवन्ती(आत्मा बसती थी)चक्रवात. धूप-छांव, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथि(कर्ण पर आधारित), नील कुसुम, सी.पी. और शंख, उर्वशी (पुरस्कृत), परशुराम प्रतिज्ञा, हारे को हरिनाम आदि।
गद्य- संस्कृति का चार अध्याय, अर्द नारेश्वर, रेती के फूल, उजली आग,शुध्द कविता की खोज, मिट्टी की ओर,काव्य की भूमिका आदि 


वरिष्ठ लेखक एंव संपादक साहित्य टी.वी.


बुधवार, 22 सितंबर 2021

पितरों के मोक्ष का सरल साधन है- पिण्डदान

 पितृ पक्ष पर विशेष -

पितरों  के  मोक्ष  का  सरल  साधन  है- पिण्डदान
 
 
लाल  बिहारी लाल






 
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सभी प्राणी के  कमों का  हिसाब या यूं  कहे  कि  लेखा-जोखा देना पड़ता  है। पर  कुछ  प्राणी अपने सद्कर्मों से  पिछे रह  जाते  है। इससे उनकी आत्मा भटकती रहती है। उनके  भटकती आत्मा को शांत करने या मोक्ष  के  लिए अपने  पितरों का पिण्ड दान या श्रद्धा से श्राद्ध करते  है इसलिए इसे  श्राद्ध कहा गया । पिण्डदान मोक्ष प्राप्ति  का   सरल एवं  सुगम  मार्ग है।
 यह अश्विन माह के प्रतिपदा से  शुरु  होकर एक  पक्ष  यानी  अश्विन  मास  के अमावस्या  तक  चलता  है। इस  दौरान अलग-अलग तिथि को पितरो  का तर्पण करते  है।

 
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मानव का जन्म बहुत सदकर्म करने के बाद  मिलता है और  इस जन्म  में सभी अपने ईच्छानुसार काम  करते है।  औऱ सभी को अपने-अपने  कर्मों  के  हिसाब  से मृत्यु के  बाद परलोक  में  जगह मिलती  है । सभी प्राणी के  कमों का  हिसाब या यूं  कहे  कि  लेखा-जोखा देना पड़ता  है। पर  कुछ  प्राणी अपने सद्कर्मों से  पिछे रह  जाते  है. इससे उनकी आत्मा भटकती रहती है। उनके  भटकती आत्मा को शांत करने या मोक्ष  के  लिए अपने  पितरों का पिण्ड दान या श्रद्धा से श्राद्ध करते  है इसलिए इसे  श्राद्ध कहा गया । पिण्डदान मोक्ष प्राप्ति  का   सरल एवं  सुगम  मार्ग है। यह अश्विन माह के प्रतिपदा से  शुरु  होकर एक  पक्ष  यानी  अश्विन  मास  के अमावस्या  तक  चलता  है। इस  दौरान अलग-अलग तिथि को पितरो  का तर्पण करते  है।
  
        श्राद्ध करने का सीधा-सीधा संबंध पितरों यानी अपने दिवंगत पारिवारिक जनों का श्रद्धापूर्वक किए जाने वाला स्मरण है जो उनकी मृत्यु की तिथि में किया जाता हैं। अर्थात पितर प्रतिपदा को स्वर्गवासी हुए हों, उनका श्राद्ध प्रतिपदा के दिन ही होगा। इसी प्रकार अन्य दिनों का भी, लेकिन विशेष मान्यता यह भी है कि पिता का श्राद्ध अष्टमी के दिन और माता का नवमी के दिन किया जाए। परिवार में कुछ ऐसे भी पितर होते हैं जिनकी अकाल मृत्यु हो जाती है, यानी दुर्घटना, विस्फोट, हत्या या आत्महत्या अथवा विष से। ऐसे लोगों का श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है। साधु और सन्यासियों का श्राद्ध द्वाद्वशी के दिन और जिन पितरों के मरने की तिथि याद नहीं है, उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता है।जीवन मे अगर कभी भूले-भटके माता पिता के प्रति कोई दुर्व्यवहार, निंदनीय कर्म या अशुद्ध कर्म हो जाए तो पितृपक्ष में पितरों का विधिपूर्वक ब्राह्मण को बुलाकर दूब, तिल, कुशा, तुलसीदल, फल, मेवा, दाल-भात, पूरी पकवान आदि सहित अपने दिवंगत माता-पिता, दादा ताऊ, चाचा, पड़दादा, नाना आदि पितरों का श्रद्धापूर्वक स्मरण करके श्राद्ध करने से सारे ही पाप कट जाते हैं। यह भी ध्यान रहे कि ये सभी श्राद्ध पितरों की दिवंगत यानि मृत्यु की तिथियों में ही किए जाएं।यह मान्यता है कि ब्राह्मण के रूप में पितृपक्ष में दिए हुए दान पुण्य का फल दिवंगत पितरों की आत्मा की तुष्टि हेतु जाता है। अर्थात् ब्राह्मण प्रसन्न तो पितृजन प्रसन्न रहते हैं। अपात्र ब्राह्मण को कभी भी श्राद्ध करने के लिए आमंत्रित नहीं करना चाहिए। मनुस्मृति में इसका खास प्रावधान है।
    किसी को कपड़े या अनाज दान करना नहीं भूलना चाहिए। यह मृत पूर्वजों की आत्माओं को खुश कर देगा। श्राद्ध दोपहर बाद के भाग में किया जाना चाहिए। इसे सुबह या दोपहर के शुरुआती भाग में नहीं किया जाना चाहिए।
 
 
 
किसका श्राद्ध कौन करे?
पिता के श्राद्ध का अधिकार उसके पुत्र को ही है किन्तु जिस पिता के कई पुत्र हो उसका श्राद्ध उसके बड़े पुत्र, जिसके पुत्र न हो उसका श्राद्ध उसकी स्त्री, जिसके पत्नी नहीं हो, उसका श्राद्ध उसके सगे भाई, जिसके सगे भाई न हो, उसका श्राद्ध उसके दामाद या पुत्री के पुत्र (नाती) को और परिवार में कोई न होने पर उसने जिसे उत्तराधिकारी बनाया हो वह व्यक्ति उसका श्राद्ध कर सकता है। पूर्वजों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध शास्त्रों में बताए गए उचित समय पर करना ही फलदायी होता है।  महाभारत के प्रसंग भी इस संदर्भ में एक  कहानी है- कर्ण को मृत्यु के उपरांत  चित्रगुप्त ने मोक्ष देने से इनकार कर दिया था। कर्ण ने कहा कि मैंने तो अपनी सारी सम्पदा सदैव दान-पुण्य में ही समर्पित की है, फिर मेरे उपर यह कैसा ऋण बचा हुआ है? चित्रगुप्त ने जवाब दिया कि राजन, आपने देव ऋण और ऋषि ऋण तो चुका दिया है, लेकिन आपके उपर अभी पितृऋण बाकी है। जब तक आप इस ऋण से मुक्त नहीं होंगे, तब तक आपको मोक्ष मिलना कठिन होगा। इसके उपरांत धर्मराज ने कर्ण को यह व्यवस्था दी कि आप 16 दिन के लिए पुनः पृथ्वी मे जाइए और अपने ज्ञात और अज्ञात पितरों का श्राद्धतर्पण तथा पिंडदान विधिवत करके आइए। तभी आपको मोक्ष यानी स्वर्ग लोक की प्राप्ति होगी|
   इस  पक्ष  में आप  अपनों पितरों का तर्पण घर पर  भी  कर  सकते  हैं या देश में लगभग  65 ऐसे स्थान  है  जिनमें हरिद्वार,नासिक,गया,बह्र्मकपाल ,कुरुक्षेत्र, उज्जैन, अमरकंटक आदि जहां  जाकर कभी  भी  पिण्डदान  कर 
सकते  है।  इन    65  में  4  महत्वपूर्ण है-  गया, नासिक ,बह्मकपाल
(बदरिनाथ) औऱ  उज्जैन  है। पर  इन  चारों  में गया  जो  विष्णु की  नगरी है सर्वाधिक  महत्वपूर्ण  है। गया  में देश  विदेश से  लोग  आते  है  अपने पितरो  के  तर्पण एँव पिण्डदान  कराने । यह पितरों  के मोक्ष का  पावन  पक्ष  है।
 

लेखक- साहित्यटी.वी. के संपादक है।